सुख – समृद्धि बाहर नही- अपने अंदर व्याप्त है, खोजे उसे और सुख – समृद्ध रहे…
सुख समृद्धि बाहर नहीं- अपने अन्दर व्याप्त है; खोजें, उसे और सुख-समृद्ध रहें – हृदयेष
पीएसएसएम (पिरामिड स्पिरिच्युअल सोसायटीज मूवमेन्ट) की सहयोगी संस्था सीजीपीएसएसएम द्वारा संचालित कचहरी चौक बाल आश्रम के निकट स्थित ‘‘कैलाष ध्यान केन्द्र’’ में आज साप्ताहिक ध्यान सत्र के अंतर्गत ध्यान मास्टर एवं षिक्षा विज्ञान से जुडे़ विषेशज्ञ हृदयेष चौहान द्वारा ‘‘जीवन में सुख-समृद्धि’’ विशय पर ध्यान सत्र का संचालन किया गया। आपने जीवन को सुख-समृद्धि पूर्ण बनाने के लिए उपस्थित ध्यानियों को बारह टिप्स दिये जो इस प्रकार हैं।
जीवन में सुख समृद्धि के लिए ऐसे अनेक उपाय हो सकते हैं लेकिन जीवन को षांतिपूर्ण बनाने के लिए व्यक्ति के अन्दर पहला सकारात्मक मानसिक विचारधारा, दूसरा स्वास्थ्य अच्छा होना चाहिए, आपसी सम्बन्धों में मीठास और मृत्यु और मय से मुक्त होना चाहिए ऐसा व्यक्ति, सचमुच जीवन में हर सुख पा सकता है, उसके अन्दर दुख, पीड़ा, अफसोस जैसे तत्व नहीं होते वह भावनाओं के साथ स्वयं को हमेषा सन्तुश्ट रखता है। उन्होंने कबीर के दोहे – ‘‘साई इतना दीजिए जा मे कुटुम समाय।
मैं भी भूखा न रहूॅं, साधु न भूखा जाए।। का उदाहरण देकर कहा हमारे साधु-सन्तों ने अपनी सोच धर्मग्रंथों और भक्तिगीतों में उकेर कर समाज को सुखी रहने का साधन लगातार बताया है, लेकिन मानमन है कि कुछ पाकर भी संतुश्ट नहीं होता और वह, अधिक से अधिक पाना चाहता है। अधिक पाकर भी वह सन्तुश्ट नहीं हो सकेगा- क्योंकि यही, मानव का स्वभाव है। मास्टर हृदयेष ने बताया की संतुश्टि ही सुख की कुंजी है और स्वंय को सकारात्मक भावों में जोड़े रखना उसका सम्बल है। इसीलिए यदि कोई व्यक्ति सुख-समृद्धि में जीना चाहता है तो उसका संतुश्ट होना जरूरी है और उसके अन्दर रिष्तों की मीठास भी रहना चाहिए।
जिसके अन्दर यह सब नहीं रहा वह कितने भी प्रयास करे बेचैन और परेषान रहेगा, दुखी ही रहेगा। व्यक्ति अपने विकास से खुष होता है; इसलिए उसमें उदार भाव का होना आवष्यक है जो उसे आगे बढ़ाने और सुख की ओर ले जाने में सहायक होता है। अन्त में उन्होंने कहा कि इस सब गुणों के बावजूद भी एक गुण का होना व्यक्ति में सर्वाधिक जरूरी है वह है- समानता का भाव, अर्थात व्यक्ति किसी से भेदभाव पूर्ण व्यवहार न रखे या किसी के प्रति हीन भावना न रखे और न हीं प्रतिस्पर्धात्मक भाव बनाए। ईष्वर ने सबको एक जैसा बनाया है सबके अन्दर एक जैसे गुण हैं- वह अपने उन गुणों का जितना अच्छा उपयोग करता है वह उतना ही श्रेश्ठ और सुखी होता है। देवतुल्य होता है, उसका सभी सम्मान करते हैं वह सबका सम्मानीय होता है – इसे पाने की चाह ही जीवन की पराकाश्ठा होती है।
आपने, उपस्थित साधकों को 20 मिनट का ‘‘ आनापानसति’’ ध्यान भी करवाया तथा उनके अनुभव पूछे।
सुदीप्तो चटर्जी…