परंपराओं की अनूठी होली : तीज-त्योहारों के मामले में छत्तीसगढ़ का अलग ही अंदाज है, रंगपर्व यानी उत्सव, शोक, उमंग और खौफ
✍️ सर्वोच्च छत्तीसगढ़ न्यूज़ उप जिला प्रमुख कृष्ण कांत त्रिपाठी गरियाबंद
परंपराओं की अनूठी होली : तीज-त्योहारों के मामले में छत्तीसगढ़ का अलग ही अंदाज है, रंगपर्व यानी उत्सव, शोक, उमंग और खौफ तीज-त्योहारों वाले छत्तीसगढ़ में होली से जुड़ी परंपराएं भी कम अनूठी नहीं हैं। देश के अधिकांश हिस्सों में जहां 2 दिन की होली मनाई जाती है, वहीं छत्तीसगढ़ में ये पर्व कहीं 5-10 दिन तक तो कहीं एक-डेढ़ महीने भी मनाया जाता है। ये भी दिलचस्प है कि अलग-अलग जगहों पर होली के रंग एक-दूसरे से जुदा हैं। मसलन, कहीं उत्सव मनता है तो कहीं शोक। कहीं उमंग दिखता है और कहीं खौफ। पढ़िए विभिन्न परंपराओं के रंगों से सराबोर राजधानी के सदरबाजार जैसी होली शायद ही प्रदेश में कहीं और मनाई जाती होगी। यहां 192 साल से ऐसे विवाह की तैयारी हो रही है जो कभी संपन्न ही नहीं होता। ये परंपरा उस नाथूराम सेठ को समर्पित है जिनका विवाह होलिका से तय हुआ था। प्रह्लाद की जान लेने के चक्कर में होलिका खुद भस्म हो गई और सेठ कुंवारे रह गए। लोग इनकी पूजा कर संतान प्राप्ति की कामना करते हैं। वैसे तो ये परंपरा मुख्यतः राजस्थान की है, लेकिन रायपुर में भी इसका निर्वहन बड़े धूमधाम से होता है। 2 साल पहले तक सेठ की बारात भी निकलती थी पर अब बंद हो गई है। 17 मार्च को नाहटा मार्केट में सेठ की शादी का भोज है। होलिका जलाकर मनाते हैं दुख देवी-देवताओं संग खेलते हैं होली दंतेवाड़ा में होली पर एक-दो दिन नहीं, बल्कि 45 दिन उत्सव है। इसकी शुरुआत बसंत पंचमी के दिन दंतेश्वरी मंदिर के मुख्य द्वार पर त्रिशूल स्तंभ की स्थापना से होती है। इसी के साथ फागुन मड़ई शुरू हो जाता है जो होली तक चलता है। इस दौरान देवी-देवताओं के साथ भी होली खेली जाती है। होलिका दहन पर जहां पूरा देश खुशियां मनाते हैं, यहां शोक का माहौल रहता है। इसके पीछे की वजह एक राजकुमारी से जुड़ी असामान्य कहानी है जिसके अनुसार राजकुमारी ने आक्रांता से बचने के लिए इसी दिन आत्मदाह कर लिया था। लोग होलिका दहन कर राजकुमारी की मृत्यु का शोक मनाते हैं। सिर्फ एक घटना के चलते सालों से न हाेलिका जलाई न हाेली मनाई छत्तीसगढ़ का एक जगह ऐसी भी है, जहां मौज-मस्ती वाले त्योहार पर पूरा गांव सूना रहता है। हम बात कर रहे हैं दुर्ग के गोंड़पेंड्री की, जहां सालों से न तो हाेलिका जलाई गई है और न ही होली मनाई गई है। इसके पीछे का कारण बुजुर्गों का एक फैसला है, दशकों पहले लिया गया था। उसी फैसले का मान रखते हुए ग्रामीण आज भी होली से परहेज करते हैं। जानकारी के मुताबिक, बरसों पहले गांव में होलिका दहन के दौरान दो पक्षों में जमकर झड़प हो गई और देखते ही देखते लड़ाई ने रौद्र रूप ले लिया। बुजुर्गों ने तभी होलिका दहन और हाेली नहीं मनाने का फैसला लिया था।तीज-त्योहारों वाले छत्तीसगढ़ में होली से जुड़ी परंपराएं भी कम अनूठी नहीं हैं। देश के अधिकांश हिस्सों में जहां 2 दिन की होली मनाई जाती है, वहीं छत्तीसगढ़ में ये पर्व कहीं 5-10 दिन तक तो कहीं एक-डेढ़ महीने भी मनाया जाता है। ये भी दिलचस्प है कि अलग-अलग जगहों पर होली के रंग एक-दूसरे से जुदा हैं। मसलन, कहीं उत्सव मनता है तो कहीं शोक। कहीं उमंग दिखता है और कहीं खौफ। पढ़िए विभिन्न परंपराओं के रंगों से सराबोर
राजधानी के सदरबाजार जैसी होली शायद ही प्रदेश में कहीं और मनाई जाती होगी। यहां 192 साल से ऐसे विवाह की तैयारी हो रही है जो कभी संपन्न ही नहीं होता। ये परंपरा उस नाथूराम सेठ को समर्पित है जिनका विवाह होलिका से तय हुआ था। प्रह्लाद की जान लेने के चक्कर में होलिका खुद भस्म हो गई और सेठ कुंवारे रह गए। लोग इनकी पूजा कर संतान प्राप्ति की कामना करते हैं। वैसे तो ये परंपरा मुख्यतः राजस्थान की है, लेकिन रायपुर में भी इसका निर्वहन बड़े धूमधाम से होता है। 2 साल पहले तक सेठ की बारात भी निकलती थी पर अब बंद हो गई है। 17 मार्च को नाहटा मार्केट में सेठ की शादी का भोज है।
होलिका जलाकर मनाते हैं दुख देवी-देवताओं संग खेलते हैं होली
दंतेवाड़ा में होली पर एक-दो दिन नहीं, बल्कि 45 दिन उत्सव है। इसकी शुरुआत बसंत पंचमी के दिन दंतेश्वरी मंदिर के मुख्य द्वार पर त्रिशूल स्तंभ की स्थापना से होती है। इसी के साथ फागुन मड़ई शुरू हो जाता है जो होली तक चलता है। इस दौरान देवी-देवताओं के साथ भी होली खेली जाती है। होलिका दहन पर जहां पूरा देश खुशियां मनाते हैं, यहां शोक का माहौल रहता है। इसके पीछे की वजह एक राजकुमारी से जुड़ी असामान्य कहानी है जिसके अनुसार राजकुमारी ने आक्रांता से बचने के लिए इसी दिन आत्मदाह कर लिया था। लोग होलिका दहन कर राजकुमारी की मृत्यु का शोक मनाते हैं।
सिर्फ एक घटना के चलते सालों से न हाेलिका जलाई न हाेली मनाई
छत्तीसगढ़ का एक जगह ऐसी भी है, जहां मौज-मस्ती वाले त्योहार पर पूरा गांव सूना रहता है। हम बात कर रहे हैं दुर्ग के गोंड़पेंड्री की, जहां सालों से न तो हाेलिका जलाई गई है और न ही होली मनाई गई है। इसके पीछे का कारण बुजुर्गों का एक फैसला है, दशकों पहले लिया गया था। उसी फैसले का मान रखते हुए ग्रामीण आज भी होली से परहेज करते हैं। जानकारी के मुताबिक, बरसों पहले गांव में होलिका दहन के दौरान दो पक्षों में जमकर झड़प हो गई और देखते ही देखते लड़ाई ने रौद्र रूप ले लिया। बुजुर्गों ने तभी होलिका दहन और हाेली नहीं मनाने का फैसला लिया था।