सूचना का अधिकार अधिनियम की दुर्दशा देख सुप्रीम कोर्ट भड़का
नई दिल्ली
सूचना का अधिकार अधिनियम (RTI Act) आया तो ऐसा लगा जैसे सरकारी दफ्तरों से भ्रष्टाचार, लाल फीताशाही, लेट लतीफी जैसी बुराइयां खत्म करने का एक घातक हथियार सीधे जनता के हाथ ही लग गया है। लेकिन अब देश की सर्वोच्च अदालत कह रही है कि आरटीआई एक्ट की धार बड़ी तेजी से भोथरी होती जा रही है और यह एक बेकार से कानून की श्रेणी में तब्दील होता जा रहा है। तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार ने शासन-प्रशासन में पारदर्शिता सुनिश्चित करने के मकसद से सार्वजनिक प्राधिकरणों को इस दायित्व से बांध दिया गया था कि यदि आम कोई जानकारी मांगे तो उसे सुगमता से मुहैया कराई जाए। लेकिन दुर्भाग्य से इसकी ऐसी दुर्दशा हो गई है कि सुप्रीम कोर्ट को भी निराशा जतानी पड़ी। सर्वोच्च न्यायालय ने सोमवार को कहा कि केंद्रीय सूचना आयोग और राज्य सूचना आयोगों में पद खाली हैं जिस कारण वो जनता की शिकायतों दूर करने में असमर्थ हैं।
तीन सदस्यीय पीठ के सामने बताया आरटीआई का हाल
वकील प्रशांत भूषण ने प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ और न्यायधीश जेबी पारदीवाला और न्यायाधीश मनोज मिश्रा की पीठ के सामने सामाजिक कार्यकर्ता अंजली भारद्वाज की याचिका पर दलील दी। उन्होंने बताया कि सीआईसी में सूचना आयुक्तों के 11 पदों में से सात खाली हैं और मौजूदा सूचना आयुक्त नवंबर में रिटायर होने वाले हैं। उन्होंने कहा कि राज्य सूचना आयोग और भी बुरी स्थिति में हैं। झारखंड राज्य सूचना आयोग मई 2020 से ही काम नहीं कर रहा है क्योंकि सूचना आयुक्तों के सभी 11 पद खाली हैं। तेलंगाना राज्य सूचना आयोग में सूचना आयुक्तों के सभी पद फरवरी जबकि त्रिपुरा में जुलाई 2021 में खाली हो गए।
नाराज सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र को दिया निर्देश
पीठ ने अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल ऐश्वर्या भाटी को निर्देश दिया कि वो केंद्र सरकार को सूचना आयुक्तों के स्वीकृत पदों, रिक्तियों की संख्या, अगले वर्ष 31 मार्च तक जो रिक्तियां होंगी, उन सब के आंकड़े जुटाएं। साथ ही, केंद्र को आरटीआई एक्ट के तहत इन निकायों के सामने लंबित शिकायतों और अपीलों से संबंधित जानकारी एकत्र करने का निर्देश भी देने को कहा। इसने केंद्र से तीन सप्ताह में एक रिपोर्ट मांगी। सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र और राज्यों को भी निर्देश दिया कि वे रिक्तियों की अधिसूचना जारी करने और उन्हें भरने की प्रक्रिया शुरू करने के लिए तत्काल कदम उठाएं। सुप्रीम कोर्ट बेंच ने कहा, ‘राज्यों ने सूचना आयोगों में रिक्तियां नहीं भरकर आरटीआई अधिनियम को एक बेकार कानून बना दिया है।’
इसलिए आया था आरटीआई एक्ट
आरटीआई अधिनियम 15 जून, 2005 को लागू हुआ और इसका उद्देश्य ‘हर सार्वजनिक प्राधिकरण के कामकाज में पारदर्शिता और जवाबदेही को बढ़ावा देने के लिए सार्वजनिक प्राधिकरणों के नियंत्रण में सूचना तक पहुंच सुरक्षित करने के लिए नागरिकों के लिए सूचना के अधिकार का व्यावहारिक शासन स्थापित करना, केंद्रीय सूचना आयोग और राज्य सूचना आयोगों का गठन करना और उससे जुड़े या उससे संबंधित मामलों के लिए’ था।
राज्य | आयुक्तों की संख्या | लंबित शिकायतें |
महाराष्ट्र | 4 | 1,15,000 |
झारखंड | 0 | तीन साल से निष्क्रिय |
त्रिपुरा | 0 | पता नहीं |
तेलंगाना | 0 | 10,000 |
कर्नाटक | 5 | 40,000 |
पश्चिम बंगाल | 3 | 12,000 |
ओडिशा | 3 | 16,000 |
बिहार | 2 | 8,000 |
याचिकाकर्ता ने दी राज्यवार रिक्तियों की जानकारी
याचिकाकर्ता अंजली भारद्वाज ने अदालत को बताया कि महाराष्ट्र राज्य सूचना आयोग के पास कोई प्रमुख नहीं है और यह केवल चार आयुक्तों के साथ काम कर रहा है, जबकि 1 लाख 15 हजार से अधिक अपील/शिकायतें लंबित हैं। उन्होंने कहा कि झारखंड एसआईसी मई 2020 से पूरी तरह से निष्क्रिय है और पिछले तीन वर्षों से कोई अपील/शिकायत दर्ज नहीं की जा रही है या उसका निस्तारण नहीं किया जा रहा है।
भारद्वाज ने कहा कि त्रिपुरा एसआईसी जुलाई 2021 से और तेलंगाना एसआईसी फरवरी 2023 से निष्क्रिय है, जबकि 10,000 से अधिक अपील/शिकायतें लंबित हैं। कर्नाटक एसआईसी पांच आयुक्तों के साथ काम कर रहा है और छह पद रिक्त पड़े हैं। उन्होंने कहा कि आयोग के समक्ष 40 हजार से अधिक अपील/शिकायतें लंबित हैं।
पश्चिम बंगाल सूचना आयोग तीन आयुक्तों के साथ काम कर रहा है और लगभग 12 हजार अपीलें/शिकायतें लंबित हैं। ओडिशा सूचना आयोग तीन आयुक्तों के साथ काम कर रहा है, जबकि 16 हजार से अधिक अपीलें/शिकायतें लंबित हैं। बिहार सूचना आयोग दो आयुक्तों के साथ काम कर रहा है, जबकि 8 हजार से अधिक अपीलें/शिकायतें लंबित हैं
आरटीआई क्यों?
भारत सरकार ने यह देखने के लिए आरटीआई लागू किया है कि भारतीय नागरिक व्यावहारिक तरीके से सरकार और विभिन्न सार्वजनिक उपयोगिता सेवा प्रदाताओं से कुछ प्रासंगिक प्रश्न पूछने के अपने अधिकारों का उपयोग करने में सक्षम हैं। आरटीआई अधिनियम ने सूचना की स्वतंत्रता अधिनियम 2002 का स्थान ले लिया। इस अधिनियम का उद्देश्य नागरिकों को सरकारी एजेंसियों से त्वरित सेवाओं का लाभ उठाने में मदद करना था क्योंकि यह अधिनियम उन्हें प्रश्न पूछने में सक्षम बनाता है कि किसी विशेष आवेदन या आधिकारिक कार्यवाही में देरी क्यों होती है। मुख्य रूप से इस अधिनियम का उद्देश्य भ्रष्टाचार मुक्त भारत प्राप्त करना है।
आरटीआई अधिनियम द्वारा क्या अनिवार्य है?
आरटीआई अधिनियम कहता है कि कोई भी भारतीय नागरिक किसी भी सार्वजनिक या सरकारी प्राधिकरण से कोई भी जानकारी मांगने के लिए स्वतंत्र है और प्राधिकरण इस तरह के आवेदन प्राप्त होने की तारीख से 30 दिनों की अवधि के भीतर ऐसे अनुरोध का जवाब देने के लिए बाध्य है। हालाँकि, मांगी गई जानकारी रक्षा, राष्ट्रीय सुरक्षा या व्यक्तिगत विवरण से संबंधित नहीं होनी चाहिए।
आरटीआई अधिनियम के आगमन से पहले, भारत में सूचना का खुलासा आधिकारिक गोपनीयता अधिनियम और कुछ अन्य विशेष कानूनों द्वारा प्रतिबंधित था। आरटीआई अधिनियम ने देश में ऐसे कई कानूनों को शिथिल कर दिया।
आरटीआई अधिनियम ने व्यापक प्रसार रिले के उद्देश्य से रिकॉर्ड को कम्प्यूटरीकृत करना भी अनिवार्य बना दिया है ताकि जनता द्वारा मांगी गई किसी भी जानकारी को सूचना वर्गीकरण द्वारा शीघ्रता से संसाधित किया जा सके।
आरटीआई के लिए आवेदन करना
आरटीआई के लिए आवेदन करना एक सरल प्रक्रिया है और इसे ऑनलाइन या ऑफलाइन दोनों तरीकों से किया जा सकता है। फिर भी, कुछ राज्यों ने अभी भी ऑनलाइन विकल्प को प्रभावी नहीं किया है। कोई भी व्यक्ति आरटीआई की आधिकारिक वेबसाइट के माध्यम से आरटीआई के लिए आवेदन कर सकता है। अलग-अलग राज्यों और विभागों के लिए आरटीआई दाखिल करने के नियम अलग-अलग हैं।
आरटीआई अधिनियम के तहत कौन सी जानकारी मांगी जा सकती है?
कोई भी भारतीय नागरिक किसी सरकारी प्राधिकरण से विलंबित आईटी रिफंड, ड्राइविंग लाइसेंस या पासपोर्ट के लिए आवेदन करने, या पूरी हो चुकी या चल रही मरम्मत या बुनियादी ढांचा परियोजना का विवरण मांगने के लिए स्वतंत्र है। मांगी गई जानकारी देश में विभिन्न प्रकार के राहत कोषों के तहत आवंटित धनराशि से भी संबंधित हो सकती है। यह अधिनियम इस अधिनियम के तहत छात्रों को विश्वविद्यालयों से उत्तर पुस्तिकाओं की प्रतियां प्राप्त करने में सक्षम बनाता है।
आरटीआई अधिनियम की पृष्ठभूमि
1987 में, राजस्थान में कुछ मजदूरों को असंगत प्रदर्शन के आरोप में उनकी मजदूरी देने से इनकार कर दिया गया था। मजदूर किसान शक्ति संगठन (एमकेएसएस), एक कार्यकर्ता समूह ने इन श्रमिकों के लिए लड़ाई लड़ी और मांग की कि सरकार श्रमिकों के प्रदर्शन रिकॉर्ड को सत्यापित करने के लिए आवश्यक सबूत पेश करे। कई विरोध प्रदर्शनों के बाद, एमकेएसएस को नामावलियों की प्रतियां मिलीं, जिससे अधिकारियों के बीच मौजूद भ्रष्टाचार भी सामने आ गया। ऐसी विसंगतियों से उत्तेजित होकर एमकेएसएस ने आरटीआई का विरोध किया। यह विरोध एक राष्ट्रीय कार्यक्रम में बदल गया जिसके परिणामस्वरूप सूचना की स्वतंत्रता अधिनियम 2002 पारित हुआ जो आरटीआई अधिनियम 2005 बन गया। पुणे के एक पुलिस स्टेशन को वर्ष 2005 में पहला आरटीआई आवेदन प्राप्त हुआ।