आर्थिक पैकेज पर माकपा की प्रतिक्रिया : मांग और रोजगार बढ़ाये बिना पैकेज का कोई अर्थ नहीं
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने कहा है कि प्रधानमंत्री द्वारा घोषित आर्थिक पैकेज पर वित्त मंत्री के दो दिनों के विवरणों से स्पष्ट है कि यह पैकेज त्रासदी झेल रहे भारत की आम जनता के लिए नहीं, बल्कि कारपोरेट इंडिया के मुनाफे के लिए है। यह पैकेज आम जनता को उसके दुखों से उबरने में कोई मदद नहीं करता।
आज यहां जारी एक बयान में माकपा राज्य सचिवमंडल ने कहा है कि आम जनता की क्रय शक्ति को बढ़ाए बिना बाजार में मांग पैदा नहीं की जा सकती और बिना मांग के उत्पादन व आपूर्ति का कोई अर्थ नहीं है। लेकिन इस पैकेज में आम जनता की क्रय शक्ति बढ़ाने की कोई योजना नहीं है और न ही उन्हें रोजगार देने की। अतः उद्योगों के लिए राहत के नाम पर कर्ज़ के जिस पैकेज की घोषणा की गई है, उससे उद्योग जगत भी खुश नहीं है। एमएसएमई की परिभाषा में परिवर्तन का सीधा फायदा बड़े उद्योगपतियों को ही मिलने जा रहा है और छोटे उद्यमी प्रतियोगिता से बाहर होने जा रहे हैं।
माकपा राज्य सचिव संजय पराते ने कहा है कि देश का किसान खाद्य योद्धा होने के बावजूद भूखा और कर्ज के फंदे में फंसा हुआ है। इसलिए वित्त मंत्री ने किसानों के लिए राहत के रूप में कर्ज का जो पिटारा खोलने की घोषणा की है, वह किसी काम का नहीं है, क्योंकि देश के किसानों की मुख्य मांग बैंकिंग और साहूकारी कर्जे से मुक्ति की और उसके द्वारा उत्पादित कृषि वस्तुओं को स्वामीनाथन आयोग के सी-2 लागत फार्मूला के डेढ़ गुना समर्थन मूल्य पर खरीदने की है। इन दोनों मुख्य सवालों को हल किए बिना कृषि क्षेत्र को संकट से नहीं उबारा जा सकता।
उन्होंने कहा कि आठ करोड़ प्रवासी मजदूरों को दो माह में 10 किलो चावल या गेहूं देने की घोषणा से भी भुखमरी की समस्या हल नहीं होने वाली, क्योंकि आज भुखमरी का दायरा काफी व्यापक है और करोड़ों लोग अपनी आजीविका खोने के कारण गरीबी रेखा के नीचे जा चुके हैं। इस कदम से केवल आठ लाख टन खाद्यान्न की निकासी होगी, जो कि सरकारी गोदामों में भरे पड़े आठ करोड़ टन अनाज का केवल 1% ही है। जरूरत सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सार्वभौमिक बनाने और राशन के कोटे को बढ़ाने की है, लेकिन मोदी सरकार ने इससे इंकार कर दिया है। उसे इस बात की भी चिंता नहीं है कि प्रवासी मजदूर अपने गांव कैसे लौटेंगे, जबकि 400 लोगों की मौतें हो चुकी है और उनकी घर वापसी के हृदय विदारक दृश्य मीडिया के जरिए सामने आ रहे हैं।
माकपा नेता ने कहा कि वित्त मंत्री के ही अनुसार, इस वर्ष अप्रैल माह में 2.33 करोड़ मजदूरों को 14.62 करोड़ मानव दिवस रोजगार दिया गया यानि प्रति परिवार औसतन मात्र 7 दिन ही काम मिला है। जिन लोगों को काम मिला है, उनकी संख्या भी पंजीकृत परिवारों का मात्र 10% ही है। कोरोना संकट ने 14 करोड़ लोगों का रोजगार छीन लिया है और करोड़ों प्रवासी मजदूर वापस अपने गांव लौटने की जद्दोजहद कर रहे हैं। इन सब लोगों को काम देने की घोषणा भी बिना किसी आबंटन के हवाबाजी ही साबित होने वाली है।
माकपा नेता पराते ने कहा कि इस आर्थिक पैकेज के केंद्र में यदि कोरोना संकट की मार झेल रहे 125 करोड़ लोगों की चिंता होती, तो उन्हें जिंदा रखने के लिए सरकारी गोदामों के ताले खोल दिये जाते, प्रवासी मजदूरों से बिना कोई यात्रा व्यय वसूले उनकी सुरक्षित घर वापसी और बाजार में मांग पैदा करने के लिए सभी गरीबों को प्रत्यक्ष नगद हस्तांतरण की योजना पर अमल किया जाता, जैसा कि आरबीआई के भूतपूर्व गवर्नर सहित कई विख्यात अर्थशास्त्री भी सलाह दे रहे हैं। स्पष्ट है कि आम जनता का पेट भरने और उनकी आजीविका की रक्षा करने की किसी योजना और इसके लिए आर्थिक संसाधन जुटाए बिना आत्मनिर्भर भारत की परिकल्पना नहीं की जा सकती। लेकिन केंद्र सरकार की कॉर्पोरेटपरस्ती ने जनहित के इन सुझावों पर विचार करने से ही इंकार कर दिया है। इससे कोरोना महामारी का संकट इस देश की सरकार की जनविरोधी नीतियों से पैदा होने वाले संकट का रूप लेने जा रहा है।