मालदीव से आया निमंत्रण, ड्रैगन की चाल फेल, समझिए भारत को क्यों इग्नोर नहीं कर सकता मालदीव
नई दिल्ली
चीन समर्थक माने जाने वाले मोहम्मद मुइज्जू 17 नवंबर को द्वीपीय देश मालदीव के राष्ट्रपति पद की शपथ लेंगे। उनसे पहले इब्राहिम सोलिह राष्ट्रपति थे जिनकी पॉलिसी 'इंडिया फर्स्ट' की थी। दूसरी तरफ मुइज्जू ने मालदीव में भारत की सैन्य मौजूदगी को पूरी तरह खत्म करने के 'इंडिया आउट' चुनावी वादे के साथ सोलिह को चुनाव में शिकस्त दी। सोलिह की विदाई के बाद से ही यह आशंका गहराने लगी है कि मालदीव एक बार फिर से चीन की गोद में जा बैठेगा। मालदीव की भौगोलिक स्थिति उसे रणनीतिक तौर पर बेहद अहम बनाती है।
मुइज्जू की जीत के बाद से ही चीन इतरा रहा होगा लेकिन उसकी राह भी बहुत आसान नहीं है। मालदीव के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति के शपथ ग्रहण के लिए चीन समेत जिन देशों को न्यौता भेजा गया है, उसमें भारत भी है। द्वीपीय देश में ड्रैगन की चाल फेल होती दिख रही है। लंबे समय के लिए तो ऐसा नहीं कहा जा सकता लेकिन फिलहाल वह अपनी चाल में कामयाब नहीं दिख रहा। वैसे भी चीन चाहे जितना प्रलोभन दे दे लेकिन मालदीव के लिए भारत को पूरी तरह इग्नोर करना आसान नहीं है।
भारत को मालदीव से न्यौता
सरकार को अभी इस पर फैसला लेना है कि मुइज्जू के शपथ ग्रहण में भारत का प्रतिनिधित्व करने कौन जाएगा। इससे पहले 2018 में जब इब्राहिम सोलिह ने मालदीव के राष्ट्रपति पद की शपथ ली थी तब खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उस समारोह में शिरकत की थी और ऐसा करने वाले वह इकलौते राष्ट्राध्यक्ष थे। मुइज्जू के प्रवक्ता का कहना है कि सभी पड़ोसी देशों को शपथ ग्रहण समारोह के लिए न्यौता भेजा गया है और उनके लिए सभी सभी न्यौते समान महत्व के हैं।
भारत-विरोधी रुख अपनाएगा मालदीव?
चीन-समर्थक माने जाने वाले मोहम्मद मुइज्जू की चुनाव में जीत के साथ ही ये आशंका गहराने लगी कि अब मालदीव भारत से दूर हो जाएगा। हालांकि, मुइज्जू के करीबियों का दावा है कि सत्ता परिवर्तन से मालदीव की विदेश नीति में कोई खास बदलाव नहीं आएगा। वह भारत या किसी भी देश के प्रति पक्षपाती नजरिया नहीं रखेगा। मुइज्जू यह जताने की कोशिश कर रहे हैं कि मालदीव से भारत की सैन्य मौजूदगी को खत्म करना अलग बात है जो उसकी संप्रभुता से जुड़ा है और नई दिल्ली से रिश्ते अलग बात है। वह बार-बार और लगातार कह चुके हैं कि वह 'इंडिया आउट' के अपने चुनावी वादे को पूरा करेंगे। उन्होंने मालदीव में भारत के उच्चायुक्त मुनु महावर से भी कह चुके हैं कि सत्ता संभालने के पहले ही हफ्ते में वह भारतीय सेना को अपने देश से निकालेंगे। हालांकि, उन्हें खुद नहीं पता कि मालदीव में कितने भारतीय सैनिक मौजूद हैं।
मालदीव में इस वक्त भारत के एक भी सैनिक नहीं!
वैसे सूत्रों की मानें तो मालदीव में इस वक्त भारत का एक भी मिलिट्री पर्सनेल है ही नहीं। , 'वहां सिर्फ हमारे तकनीकी विशेषज्ञ हैं जो आईटीईसी (इंडियन टेक्निकल ऐंड इकनॉमिक को-ऑपरेशन) प्रोग्राम के तहत उन्हें डोर्नियर एयरक्राफ्ट और दो हेलिकॉप्टरों को उड़ाने में मदद कर रहे हैं। इसके अलावा वहां सेनाहिया मिलिट्री हॉस्पिटल में इंडियन डॉक्टर हैं।
मालदीव क्यों नहीं कर सकता भारत को नजरअंदाज?
मालदीव भारत के लिए रणनीतिक लिहाज से अहम है, इसमें कोई शक नहीं। लेकिन भारत भी मालदीव के लिए कम महत्वपूर्ण नहीं है। दोनों देशों के बीच सदियों से सांस्कृतिक जुड़ाव है। दोनों देशों के बीच गहरे कारोबारी रिश्ते हैं। 3 दशक पुराने ट्रेड अग्रीमेंट के तहत मालदीव भारत से उन वस्तुओं का भी आयात करता है जिनका दूसरे देशों को निर्यात नहीं होता। भारत उसके सुख-दुख का भरोसेमंद साथी रहा है। अभी वह मालदीव के तमाम इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट को फंड कर रहा है जिसमें ग्रेटर माले कनेक्टिविटी प्रोजेक्ट भी है जिसे मालदीव का सबसे बड़ा इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट माना जा रहा है। दूसरी तरफ चीन की छवि देशों को कर्ज के जाल में फंसाकर उन्हें अपने 'आर्थिक और सामरिक उपनिवेश' के तौर पर इस्तेमाल करने की है। वह इसके लिए कुख्यात है। मालदीव पहले ही चीन के भारी कर्ज के बोझ तले दबा है। उसकी सरकार पर चीन का 1.5 अरब डॉलर कर्ज है, जबकि प्राइवेट सेक्टर भी ड्रैगन से 2 अरब डॉलर कर्ज ले चुका है।
सुरक्षा के लिए मालदीव की निर्भरता भारत पर कहीं ज्यादा है। मालदीव पर जब आतंकियों के हाथों अपने एक द्वीप के खोने का खतरा मंडराया तब 2009 में उसने भारत से ही मदद की गुहार लगाई। तब दोनों देशों के बीच एक समझौते पर दस्तखत हुए थे। उसके तहत भारत ने अपने दो हेलिकॉप्टरों को स्थायी तौर पर मालदीव में तैनात किया ताकि उसकी निगरानी क्षमताओं को बढ़ाया जा सके। समझौते के तहत इंडियन कोस्ट गार्ड भी नियमित तौर पर मालदीव में डोर्नियर विमानों की छोटी उड़ानें भरेगी ताकि किसी भी संदिग्ध गतिविधि पर नजर रखी जा सके। मालदीव की नैशनल डिफेंस फोर्स को भारत ही ट्रेनिंग देता है। उसकी करीब 70 प्रतिशत डिफेंस ट्रेनिंग की जरूरतों को भारत ही पूरा करता है। 1988 में जब तत्कालीन गयूम सरकार के तख्तापलट की कोशिश हुई थी तब भारत ने ही 'ऑपरेशन कैक्टस' चलाकर उसे नाकाम किया था।
जब-जब मालदीव मुसीबत में पड़ा, भारत मदद करता रहा है
मालदीव के लिए भारत को इग्नोर करना इसलिए भी आसान नहीं है कि वह उसकी मुसीबतों में भी सबसे पहले साथ देने पहुंचता है। 1988 में ऑपरेशन कैक्टस के जरिए तख्तापलट की कोशिश को नाकाम करने से लेकर कोरोना काल में ऑपरेशन संजीवनी तक, भारत जरूरत के वक्त हरदम मालदीव के साथ चट्टान की तरह खड़ा रहा। 2014 में मालदीव के सामने गंभीर पेयजल संकट खड़ा हो गया था। लोगों के पास पीने का पानी तक नहीं था तब भारत ने ऑपरेशन नीर चलाकर उसकी प्यास बुझाई। इसी तरह कोरोना काल में भारत ने ऑपरेशन संजीवनी के तहत मालदीव को 6.2 टन जरूरी दवाएं भेजकर मदद की। जाहिर है, मालदीव के लिए भारत से दूर होकर पूरी तरह चीन की गोद में बैठना आसान नहीं है।